Monday, October 27, 2014

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ब्रतशील जीवन और अवतार

अवतारों की पुण्य प्रक्रिया भी निर्वाध रीति से बिना किसी अर्चन के संपन्न नहीं हो जाती, उसमे पग - पग पर अवरोध और आक्रमण सामने आते हैं । ‍‍‍ यह सारा उत्पात उन आसुरी तत्वों का है जो अवांछनीयता की सड़ी कीचड़ में ही डांस, मच्छरों की तरह अपनी जिंदगी देखते हैं । ‍‍‍कुछ ईर्ष्यालु हैं, जिन्हें अपने अतिरिक्त किसी अन्य का यश वर्चस्व सहन ही नहीं होता । ‍‍‍ इसके अतिरिक्त सड़े टमाटर का भी एक वर्ग है, जो पेट में रहने वाले कीड़ों की, चारपाई पर साथ सोने वाले खटमलों की , आस्तीन में पलने वाले सांपो की तरह जहाँ आश्रय पाते हैं, वहीं खोखला भी करते हैं । बिच्छू अपनी माँ के पेट का मांस खाकर ही बढ़ते और पलते हैं, माता का प्राणहरण करने के उपरांत ही
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काश मैं स्वयं को समझ पाता


बड़ी अजीब उलझन है, मैं कौन हूँ ? सवाल छोटा सा है, पर जबाब ढूंढे नहीं मिलता । यूं कहने को तो हम बुद्धिमान हैं । अब तक ना जाने कितने क्यू? क्या? कैसे? किसलिए? की पहेलिया सुलझा चुके । धरती आकाश का चप्पा - चप्पा छान डाला और प्रकृति के रहस्यों को प्रत्यक्ष करके सामने रख दिया।
इस बौद्धिक कौशलता की खूब प्रशंसा भी हुई। लेकिन इस छोटे से सवाल का समाधान ना होने के कारण सारी बौद्धिक करामातें धरी की धरी रह गयी। और बेचारा 'मैं ' अपना परिचय ना पा सकने के कारण नित नयी परेशानियो में फंसता उलझता चला गया । अनगिनत बिडंबनाये -बिभीषिकाए उसे संतृप्त करती चली गयी ।
इससे उबरना तभी संभव है जब 'मैं' अपनी खोजबीन करे । तनिक सोचे जिस काया को शरीर समझा जाता है, क्या यही मैं हूँ, क्या कष्ट, चोट, भूख, शीत - आतप आदि से पग-२ पर ब्याकुल होने वाला, अपनी सहायता के लिए बाजार, दरजी, किसान, रसोइया, चर्मकार, चिकित्सक आदि पर निर्भर रहने वाला ही 'मैं' हूँ ?