कल सुबह से मैं सोच रहा हूँ कि क्या हमारे सनातन समाज से धर्म और धर्माचरण समाप्त होता जा रहा है। जहाँ विज्ञान अपने आप को साबित करा है, हर ओर हमें वैज्ञानिक चमत्कार दिख रहा है उसके उलट सच्चे धर्माचरण वाले व्यक्तित्व ढूंढने पर भी नहीं मिलते हैं। विज्ञान हमें हमारे जीवन को सरल बना सकता है, लेकिन धर्म के बिना वैज्ञानिक उपलब्धि हमें विनाश के ओर ही ले जाएंगे। आज जो हर ओर नैतिक पतन दिख रहा है उसके पीछे कहीं ना कहीं हमारे धर्म और धर्म के ठेकेदारों की विफलता नहीं तो और क्या है। अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में क्रिसमस के बारे में तो अच्छी अच्छी बातें बताई जाती है किन्तु हमारे धर्म, सनातन धर्म के बारे में कितने बच्चे पढ़ते हैं ? जब मैं इन बड़े-बड़े अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों के नाम देखता हूँ तो आश्चर्य होता है की उनके नाम विदेशी ईसाई संतो और पादरिओं के नाम पर रखे होते हैं और वहां पढ़ने वाले बच्चे और पढ़ाने वाले शिक्षक में से ९९% हिन्दू होते हैं। क्या हमारे समाज और संस्कृति में संतों की कमी है! कितने पब्लिक स्कूलों में हिन्दू देवी देवताओं और संतों के बारे में पढ़ाया जाता है?
हमारे समाज में संतों और धर्मग्रंथो की कमी नहीं है। कमी है तो सच्चे धर्माचार्यों की और धर्म को अपने जीवन में उतारने वाले मनस्वी लोगों की। जो लोग अपने आप को धर्म का ठेकेदार मानते हैं, उन्हें समझना होगा की केवल बोलने से अगर धर्म का महत्व प्रचार प्रसार हो जाता तो कब का हो गया होता। अगर हम अपने आचरण से दूसरों को धर्म का उपदेश दें तो उसका प्रभाव ही कारगर होता है। हमें अपने सदाचरण से दूसरों को धर्म के प्रति जागरूक करना चाहिए। धर्म की शिक्षा को बचपन से ही देना आवश्यक होता है, अक्सर हम सुनते हैं कि धर्म का काम तो बुढ़ापे में करना चाहिए पर एक बात हमें सोचनी चाहिए कि जब मृत्यु का कोई समय निश्चित नहीं है तो ये कैसे हो सकता है कि हम बुढ़ापे तक पहुंच सकें इसलिए जब हम युवा हैं,जब तक हमारे हाथ में ताकत है तभी हमें धर्म कर्म के कार्य शुरू कर देने चाहिए।
आज के वातावरण में जब हर कोई पैसों के पीछे भाग रहा है, किसी के सफल और असफल का पैमाना पैसा हो गया है, धर्माचरण भी फैशन बन गया है। जिनके पास पैसे हैं वो भंडारे लगा कर, डोनेशन देकर अपने धार्मिक होने का डंका बजाते हैं। पर जो निर्धन हैं वो अगर धर्म की बातें करे तो लोग उस पर हँसते हैं। और इस तरह हम समाज के पिछड़े तबके के लोगों को किसी और धर्म जैसे मुस्लिम और ईसाई में जाने का मौका देते हैं। ऐसा नहीं है की यह नया है, इसी सब के कारण हमने अपने कितने ही सनातन धर्मालम्बी भाईओं को खो दिए और अभी भी खो रहे हैं। अगर अब भी नहीं सम्हले तो शायद बहुत देर हो जायगी। किसी के सफल और असफल होने का पैमाना उसके सच्चे धर्माचरण और कर्म होना चाहिए ना की उसका धर्म अर्जन।
हमारे समाज में संतों और धर्मग्रंथो की कमी नहीं है। कमी है तो सच्चे धर्माचार्यों की और धर्म को अपने जीवन में उतारने वाले मनस्वी लोगों की। जो लोग अपने आप को धर्म का ठेकेदार मानते हैं, उन्हें समझना होगा की केवल बोलने से अगर धर्म का महत्व प्रचार प्रसार हो जाता तो कब का हो गया होता। अगर हम अपने आचरण से दूसरों को धर्म का उपदेश दें तो उसका प्रभाव ही कारगर होता है। हमें अपने सदाचरण से दूसरों को धर्म के प्रति जागरूक करना चाहिए। धर्म की शिक्षा को बचपन से ही देना आवश्यक होता है, अक्सर हम सुनते हैं कि धर्म का काम तो बुढ़ापे में करना चाहिए पर एक बात हमें सोचनी चाहिए कि जब मृत्यु का कोई समय निश्चित नहीं है तो ये कैसे हो सकता है कि हम बुढ़ापे तक पहुंच सकें इसलिए जब हम युवा हैं,जब तक हमारे हाथ में ताकत है तभी हमें धर्म कर्म के कार्य शुरू कर देने चाहिए।
आज के वातावरण में जब हर कोई पैसों के पीछे भाग रहा है, किसी के सफल और असफल का पैमाना पैसा हो गया है, धर्माचरण भी फैशन बन गया है। जिनके पास पैसे हैं वो भंडारे लगा कर, डोनेशन देकर अपने धार्मिक होने का डंका बजाते हैं। पर जो निर्धन हैं वो अगर धर्म की बातें करे तो लोग उस पर हँसते हैं। और इस तरह हम समाज के पिछड़े तबके के लोगों को किसी और धर्म जैसे मुस्लिम और ईसाई में जाने का मौका देते हैं। ऐसा नहीं है की यह नया है, इसी सब के कारण हमने अपने कितने ही सनातन धर्मालम्बी भाईओं को खो दिए और अभी भी खो रहे हैं। अगर अब भी नहीं सम्हले तो शायद बहुत देर हो जायगी। किसी के सफल और असफल होने का पैमाना उसके सच्चे धर्माचरण और कर्म होना चाहिए ना की उसका धर्म अर्जन।
आज लोगों के नैतिक पतन का कारण केवल और केवल धर्म के तथाकथित ठेकेदारों (पंडितों ) के कमी का होना है। जिस तरह पदार्थों के वैज्ञानिकों ने विज्ञान को साबित किआ है उसी तरह धर्म के पंडितों को धर्म भी अपने आचरण और उदाहरण से सिद्ध करना होगा। तब जाकर जनमानस के नैतिक पतन को समाप्त करा जा सकता है।