Sunday, February 04, 2018

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जीवन एक पहेली

 मैंने यह पढ़ा था कि जीवन एक मायाजाल है, "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" इत्यादि-इत्यादि। कभी बिश्वास नहीं होता था! लेकिन यह सच है।
इसे इस तरह से समझते हैं की विज्ञान के हिसाब से अँधेरा कभी होता ही नहीं है लेकिन हमारी आखें रात के अँधेरे में देख नहीं सकती, ध्वनि भी हम एक निश्चित हर्ट्ज़ पर ही सुन सकते हैं, २० हर्ट्ज़ से लेकर २०००० हर्ट्ज़ तक।
इस संसार में कभी रात होते ही नहीं हैं। जब हमारे देश में रात हो रही होती है तो अमेरिका में सुबह हो रहे होते हैं।  इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो यह सिद्ध करते हैं की हमारे सनातन धार्मिक ग्रन्थ में लिखे गए बातें केवल कोरी कल्पना नहीं है।
  इसके पीछे गहन वैज्ञानिक सिद्धांत है।  लेकिन हम कभी इसे समझने का प्रयास ही नहीं करते हैं।  दूसरे शब्दों में हमारे दिमाग के प्रोग्रामिंग ही इस तरह से करा गया है की हम बहिर्मुखी अधिक और अंतर्मुखी कम या बिलकुल नहीं के बराबर रहते हैं। आज का विज्ञान यह मानता है कि किसी भी वस्तु का  कभी कोई अंत नहीं होता है, बस रूप बदल जाता है।  
हमारे धर्म में सदियों से यह बात कही जाती रही है की आत्मा अमर अजर अविनाशी है। मनुष्य का शरीर भर मरता है और मरने के बाद पांच तत्वों  में विलीन हो जाता है लेकिन हम अर्थात आत्मा अजर अविनाशी है।  जो कभी ख़त्म नहीं होता है।  वस्तुतः कोई भी चीज कभी नष्ट होती ही नहीं है बस अपना रूप बदल लेती है।  मायाजाल - अर्थात हम जो भी देखते हैं, जो भी सुनते हैं वह झूठ है।  यह सुनने में एक मजाक लगता है, पर यह तार्किक रूप से भी सत्य है।  हॉलीवुड का एक फिल्म मैट्रिक्स सीरीज याद है ना। उस फिल्म में एक अकाउंटेंट होता है जो फिल्म का मुख्य नायक है, अंत में इस विश्व को मशीनों (रोबोट्स) से बचाता है। अब यह समझ लो की यह प्रकृति मशीन है जो अपने हिसाब से हम सब को इस जगत से बाँध रखा है, हम कोशिश भी करें तो हम साधारण प्रयास से इस प्रकृति के चक्र से निकल नहीं सकते हैं।  और एक योगी, साधक मैट्रिक्स फिल्म का नायक अकाउंटेंट है जो की उस कम्यूटर महाशक्ति प्रकृति के चक्र से अपने आप को निकाल रहा है।  हमारे सनातन धर्म में प्रकृति और ईश्वर को दो अलग सत्ता माना गया है - प्रकृति माने मन, ईश्वर माने आत्मा।  जबकि पाश्चात्य संस्कृति में प्रकृति को ही ईश्वर समझा गया है।  अब जो रंग हम देखते हैं, जो हम सुनते हैं वो सब सच नहीं है और हमारे आँख और कानों के हिसाब से है तो यह माया ही तो हुआ।  जिस घास को हम हरा रंग का देखते हैं, वो दरअसल सफ़ेद रंग का होता है।  जिस धूप को हम सूर्य की किरण समझते हैं वो वस्तुतः धूल कण की चमक है। बचपन में मेरी दादी एक कविता कहती थी "मैं तो रमता जोगी राम! मेरा क्या दुनिया से काम!! हाड़ मांस की बानी पुतलिया! उसमें  जड़ा  हुआ है चाम !!" अर्थात मैं तो योगी हूँ, मेरा इस संसार से क्या काम।  यह शरीर तो हड्डी माँस  से बना हुआ है जो की एक दिन ख़त्म हो जाएगा उसमे प्राण दे दिया गया है।  कितने आश्चर्य की बात है की यह अब समझ में आ रहा है कि दादी के कविता का मतलब क्या था।  हालाँकि हम कभी इस बात को मानते ही नहीं हैं की हमें भी एक दिन  मरना होगा और वो दिन कभी भी आ सकता है।  किसी को नहीं पता होता है कि उसकी मृत्यु  कब और कैसे होगी।  विज्ञान जो की आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस बना सकता है किन्तु यह नहीं बता सकता है की कौन कब और कैसे मरेगा।  फिर भी हम यही मानते रहते हैं की अभी तो हम जियेंगे।  यही सबसे बड़ा आश्चर्य है, और यही तो मायाजाल है।  जीवन एक पहेली ही तो है।  
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